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त्वद्भि॒या विश॑ आय॒न्नसि॑क्नीरसम॒ना जह॑ती॒र्भोज॑नानि। वैश्वा॑नर पू॒रवे॒ शोशु॑चानः॒ पुरो॒ यद॑ग्ने द॒रय॒न्नदी॑देः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvad bhiyā viśa āyann asiknīr asamanā jahatīr bhojanāni | vaiśvānara pūrave śośucānaḥ puro yad agne darayann adīdeḥ ||

पद पाठ

त्वत्। भि॒या। विशः॑। आ॒य॒न्। असि॑क्नीः। अ॒स॒म॒नाः। जह॑तीः। भोज॑नानि। वैश्वा॑नर। पू॒रवे॑। शोशु॑चानः। पुरः॑। यत्। अ॒ग्ने॒। द॒रय॑न्। अदी॑देः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:5» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वैश्वानर) सर्वत्र विराजमान (अग्ने) सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप ! (यत्) जो आप दुःखों को (दरयन्) विदीर्ण करते हुए (पूरवे) मनुष्य के लिये (शोशुचानः) पवित्रविज्ञान को (पुरः) पहिले (अदीदेः) प्रकाशित करें इससे (त्वत्) आपके (भिया) भय से (असिक्नीः) रात्रियों के प्रति (असमनाः) पृथक्-पृथक् वर्त्तमान (भोजनानि) भोगने योग्य वा पालन और (जहतीः) अपनी पूर्वावस्था को त्यागती हुई (विशः) प्रजा (आयन्) मर्यादा को प्राप्त हों ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर के भय से वायु आदि पदार्थ अपने-अपने काम में नियुक्त होते हैं, उसके सत्य-न्याय के भय से सब जीव अधर्म से भय कर धर्म में रुचि करते हैं। जिसके प्रभाव से पृथिवी सूर्य्य आदि लोक अपनी अपनी परिधि में नियम से भ्रमते हैं, अपने स्वरूप का धारण कर जगत् का उपकार करते हैं, वही परमात्मा सब को ध्यान करने योग्य है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स परमेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे वैश्वानराग्ने ! यद्यस्त्वं दुःखानि दरयन् पूरवे शोशुचानः पुरोऽदीदेस्तस्मात् त्वद्भियाऽसिक्नीरसमना भोजनानि जहतीर्विश आयन् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वत्) तव सकाशात् (भिया) भयेन (विशः) प्रजाः (आयन्) मर्यादामायान्तु (असिक्नीः) रात्रीः। असिक्नीति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (असमनाः) पृथक् पृथग्वर्त्तमानाः (जहतीः) पूर्वामवस्थां त्यजन्तीः (भोजनानि) भोक्तव्यानि पालनानि वा (वैश्वानर) सर्वत्र विराजमान (पूरवे) मनुष्याय (शोशुचानः) पवित्रं विज्ञानम् [ददन्] (पुरः) पुरस्तात् (यत्) यः (अग्ने) सूर्य इव स्वप्रकाश (दरयन्) दुःखानि विदारयन् (अदीदेः) प्रकाशयेः ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! (भीषास्माद् वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम इति कठवल्ल्युपनिषदि (तुलना-कठोप०२.६.३, तैत्तिरोयोप० ब्र० वल्ली, अनुवाक ८.१) परमेश्वरस्य सत्यन्यायभयात् सर्वे जीवा अधर्माद्भीत्वा धर्मे रुचिं कुर्वन्ति यस्य प्रभावात्पृथिवी सूर्यादयो लोकाः स्वस्वपरिधौ नियमेन भ्रमन्ति स्वस्वरूपं धृत्वा जगदुपकुर्वन्ति स एव परमात्मा सर्वैर्मनुष्यैर्ध्येयः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराच्या भयाने वायू इत्यादी पदार्थ आपापल्या कामांत नियुक्त होतात, त्याच्या सत्य न्यायाला जाणून सर्व जीव अधर्माला भिऊन धर्माने वागतात, ज्याच्या प्रभावाने पृथ्वी, सूर्य इत्यादी लोक आपापल्या परिधीत नियमाने भ्रमण करतात व आपले स्वरूप धारण करून जगावर उपकार करतात तोच परमात्मा सर्वांनी ध्यान करण्यायोग्य आहे. ॥ ३ ॥